कहानी बावळये की

 कहानी बावळये की 

साल 1913 की बात है। 'भूल्ये चूक्ये' जोधपुर आने वाला काळ इस बार तीन सालों से डेरा डाल कर बैठा था। खाल सेंक देने वाली लू सांय सांय कर रही थी। पुरबाई बादलों की जगह सिंध से आने वाले टिड्डी दल के घेरे थे। रेलें रोक दी गईं, क्यूं के बड़ी तादाद में टिड्डी फाकों के पिसने से पटरी और पहिये आपस में चिपक गए थे। मारवाड़ की गद्दी पर उस समय 15 साल के किशोर महाराजा सुमेर सिंह बिराजे थे। दरबार ने अकाल को देखते हुए चराई माफ़ कर दी। लेकिन चरने को कुछ बचा हो तब कोई बात! 


महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने ईस्वी 1888 में जोधपुर राज्य में फॉरेस्ट महकमा शुरू किया था। लाला दौलत राम इसके पहले मुखिया हुए। हम जिस समय की बात कर रहे हैं, उस समय, यानि 1913 में, बाबू चतुरभुज गहलोत इस पद पर आसीन थे। पांच सात साल तक सोजत में रेंजर और साल भर गुज़ारे के इंस्पेक्टर रहने के बाद बाबू चतुरभुज सुपरिंटेंडेंट की पोस्ट तक पहुँचे थे। हालांकि उनसे पहले पण्डित रिखेश्वर प्रसाद सीनियोरिटी के नाते मुखिया होने की आस लगाए बैठे थे। लेकिन कामेड़े होने के ट्रैक रिकार्ड के चलते मौका मिला चतुरभुज जी को। 


फॉरेस्ट महकमे के कामों में उन दिनों जंगलात की जमीन का रखरखाव,  लकड़ी-पनड़ी, छाल-गोंद का बेचान आदि शामिल थे। काळ के टैम में नीरे-चारे का जुगाड़ करने का भार भी इस महकमे पर ही था।

बाबू चतुरभुज ने अपने वर्किंग प्लान में ऐसे पेड़ों को शामिल किया, जो चारे के काळ का दोहराव रोक सके। पूरी रियासत में जगह जगह नर्सरियां खोली गई, बीज बांटे गए। खैर, खेजड़ी, कूमठे और बोरड़ी के बीज बालोतरा में लूणी के सहारे बिखेरे गए, जोधपुर में छितर की पहाड़ियों पर छितराए गए। लेकिन जितनी आस थी, उतना खास कुछ हुआ नहीं। 


ऐसे में बाबू जी ने 'एग्जॉटिक' किस्मों को आजमाना शुरू किया। राय साहिब पण्डित श्याम बिहारी मिश्रा ने लोचदार नागफनी लगाने का मशविरा दिया। जिसका एक एक पत्ता परात जितना बड़ा। लाहौर से बाबू जी ने इसके बीस बीज खरीद कर मंगवाए। जोधपुर में अभी जहां उम्मेद गार्डन (पुराना नाम- विलिंग्डन गार्डन) है, उस जगह पहले फॉरेस्ट महकमे की झालरा नर्सरी हुआ करती थी। इस नर्सरी में यह नागफनी रोपी गई। वहीं पर अरबी ख़जूर और गिनी घास भी परखी गई।


एक कोई फ्रेंच घुमक्कड़ उन दिनों जोधपुर आया था, उसने सहारा रेगिस्तान में उगने वाली किस्मों को ट्राई करने की सलाह दी। महकमा खास ने बीजों का जुगाड़ किया। कुल बारह तरह की किस्में उगाई गई। पर पनपी केवल तीन। एक तो पचपदरा की मोरली से मिलती जुलती कोई नमक झाड़ी, एक घास और एक केर जैसे फल देने वाला पौधा। 

हालांकि ऐसा नहीं है कि कोरे नीरे चारे वाले पौधे ही परखे जा रहे थे। बाबू जी ने कश्मीर से जाफ़रानी केसर भी मंगवाई थी। और रीवा से लाख। लाख के तो तीन चार सालों तक तल्ले किए गए थे। लेकिन जसवंतपुरा में लगाए गए लाख के रखरखाव का खर्च आया तैतीस रुपए और कमाई हुई दस रुपए चालीस पैसे। प्रयोग रोक दिया गया। 


उन दिनों लुटियंस की दिल्ली बननी शुरू हुई थी। लुटियंस के कहने पर गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने पंजाब सूबे से दिल्ली में उग सकने वाले पेड़ों की सूची मांगी। अस्सी पेड़ों की इस सूची में तिरेसठवें नम्बर पर एक किस्म थी- जूलिफ़्लोरा। जिसे लुटियंस की टीम के माली मस्टॉ ने दिल्ली रिज फॉरेस्ट के लिए अलग से छांटा था। उसके कहने पर सहारनपुर में जूलिफ़्लोरा के बीज बड़े पैमाने पर तैयार किए गए थे। मारवाड़ के फॉरेस्ट महकमे ने भी मौके का फायदा उठाया और इस 'प्रॉमिसिंग' पेड़ के बीज मंगवा लिए। 


जूलिफ़्लोरा किस्म मूल रूप से मैक्सिकन है, किन्तु भारत में यह जमैका के रास्ते लाई गई। 1877, आंध्र प्रदेश के कडप्पा में। उसके बाद यह पंजाब- सिंध पहुंची। फिर दिल्ली और मारवाड़।


सो, गहलोत साहब ने झालरा नर्सरी में जूलिफ़्लोरा के बीज रोपे। कोंपले बड़ी जल्दी फूटी तो बाली, देसूरी, जालोर, सोजत और जैतारण के परगनों में भी बीज भेजे गए। वहां पर भी पांगरते देख लूणी किनारे और छितर की पहाड़ियों पर कुछ पौधे रोपे, जहां काळ के दिनों में देसी खेजड़ी भी न उगी थी। जूलिफ़्लोरा सब जगह पनप गई। पनपी, पांगरी और दो साल पूरे हुए नहीं, तब तक तो फलियां भी देने लग गई। 


चतुरभुज बड़े राजी हुए। उन्होंने बाकी एग्जॉटिक प्लांट्स को छोड़ पूरा ध्यान जूलिफ़्लोरा पर लगा दिया। महकमे से सैकड़ों पौधे तैयार करवाए। राज की नर्सरियों में, तिलवाड़ा के मेले में, कुंओं के किनारे, रेलवे टेसनों पर ये पौधे बांटे-बेचे, बोए-रोपे। डेढ़-दो साल तक यह काम धीरे धीरे चला।


वैज्ञानिक विभाजन के आधार पर जूलिफ़्लोरा प्रोसोपिस वंश का अंग है। मारवाड़ में तो प्रोसोपिस वंश की खेजड़ी ही थी। सो इसे विलायती खेजड़ी नाम दिया गया। इसके पेड़ रियासत में काफ़ी जगह बिखरे बिखरे नजर आने लगे। 


1918 में महाराजा सुमेर सिंह निमोनिया की चपेट में आ कर परलोक सिधार गए। उनके छोटे भाई उम्मेद सिंह को गद्दी मिली। राज तो बदला ही, साथ ही राम भी बदले। अगले सात आठ साल तक ठीक ठाक 'जमाना' होता रहा। मारवाड़ के आदमी को अच्छा मेह मिल जाए तो वो आगा-पीछा क्यों सोचे। विलायती खेजड़ी का प्रोजक्ट भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। पच्चीस में बाबू जी का कुछ आला अफसरों से झोड़ हो गया, घोटालों के आरोप लगे। महकमे का खरच घटा दिया गया। सन इकत्तीस में बाबू चतुरभुज गहलोत रिटायर हो गए। 

पर बीस साल की मुखियाई में बहुत बड़ा सन्तोष -जूलिफ़्लोरा को मारवाड़ लाना।


बाबूजी की पारी तो यहां खतम हो गई लेकिन जूलिफ़्लोरा के लिए खेल अभी शुरू हुआ था। 

काळ इस बार भी तीन साल से लम्बा टिका। महाराजा उम्मेद सिंह अकाल राहत में छितर पैलेस (अब उम्मेद भवन पैलेस) बनवाना शुरू कर चुके थे। काळ आया तो विलायती खेजड़े के भी दिन फिरे। इस बार नया ये था कि महाराजा ने ख़ुद व्यक्तिगत रुचि लेना शुरू किया। बड़े पैमाने पर जूलिफ़्लोरा बांटी-बोई गई। हर गांव, परगने तक। 

महाराजा उम्मेद सिंह कुशल पायलट थे और टाइगर मॉथ प्लेन उड़ाया करते थे। बातें तो ये भी चली कि दरबार चीलगाड़ी में कट्टे भर कर विलायती खेजड़े के बीज ले कर उड़े थे और पूरी रियासत पर बरसा गए थे। जो भी हुआ, धीरे धीरे खालसा जमीनें जूलिफ़्लोरा के जंगलों में तब्दील होने लगी। 

चालीसा आते आते जूलिफ़्लोरा को मारवाड़ रियासत के 'रॉयल प्लांट' का आधिकारिक दर्जा मिल चुका था।


ईस्वी 1944 में भारत सरकार के जंगलात महकमे के इंस्पेक्टर जनरल सर हर्बर्ट हॉवर्ड्स ने जोधपुर का दौरा किया। तब महाराजा ने साथ घूम कर सरदार समन्द के पास ख़ुद के लगाए जूलिफ़्लोरा के पेड़ दिखाए। सर हर्बर्ट बालोतरा में लूणी किनारे बाबू चतुरभुज के टैम लगे पेड़ देखने भी गए। वहां अब बीस-बीस फ़ीट ऊंचे पेड़ों का घना जंगल था। पर जहाँ बाबू चतुरभुज ने पेड़ लगाए थे, वहां से डेढ़ मील दूर।

गांव वाले कहते मिले कि इसका केवल पहला पेड़ लगाना ही मुश्किल था, अब तो पातड़ी खा कर जहां गधे ने लीद कर दी, जहां बकरी ने मींगणी कर दी, वहीं यह उग जाता है। सर हर्बर्ट को समझते देर न लगी कि जानवरों का पाचन तंत्र जूलिफ़्लोरा के अंकुरण को आसान बना देता है। लौटकर उन्होंने कई कागजों में विलायती खेजड़े के गुण गाए।


जूलिफ़्लोरा को महकमे ने भले ही विलायती खेजड़ा कह दिया हो, पर मारवाड़ की प्रजा को यह बात जची नहीं। मारवाड़ जो खेजड़ी पूजे। जहाँ खेजड़ी खजाना। जहाँ सांगरी सोना। जहाँ खेजड़ली गांव। वहां आंखों देखते बाहर से आया कोई झाड़ झंखाड़ भला खेजड़ी की क्या बराबरी करे। सांगरी और पातड़ी की क्या तुलना। खेजड़ी के कांटे ज्यों गुलाब के कांटे। इस के कांटे ज्यों बबूल की शूल। यह विलायती खेजड़ा नहीं विलायती बबूल है। विलायती बांवळ। भले साइंस कहती रहे कि यह खेजड़े का सगा भाई है, प्रोसोपिस वंश का। बबूल अकेशिया वंश का है। काके बेटा भाई। पर मारवाड़ में जूलिफ़्लोरा बांवळ ही माना जाएगा।


ख़ैर, बकरियों और गधों ने सांगरी पातड़ी में कोई फेर फर्क ना किया, एक चाव से खाई। उनके कारण जूलिफ़्लोरा को रोपाई की जरूरत नहीं रही,अब यह बांवळ कुदरती ही खूब फैला। 

जूलिफ़्लोरा ने खूब कार भी करा। नीरे-चारे का जुगाड़ तो हुआ ही, जलावन की लकड़ी भी मिलने लगी। जनता के दो मोटे दुःख कम हो गए। साथ ही बाड़, फलसे और किंवाड़ बनाने में भी इसकी लकड़ी काम आई। छप्पर छाए तो बल्लियाँ काम आई। वैज्ञानिकों ने पाया कि जहां जूलिफ़्लोरा के पेड़ लगे, वहां माटी का कटाव रुका, धोरे थम गए। माटी का उपजाऊपन भी बढ़ा। हरियाली हुई सो अलग। कई लोगों ने इस पर मधुमक्खियां पाली तो कईयों ने इससे चारकोल बनाया। टाबर इसकी पातड़ी भी रस लेकर खाने लगे।


आज़ादी के बाद जोधपुर में काजरी इंस्टिट्यूट खुला। इस संस्थान के वैज्ञानिकों ने जूलिफ़्लोरा पर अनेक रिसर्च किए। पातड़ी से आटा, बिस्कुट,शर्बत बना कर दिखाए। नई चुनी गई सरकारों ने भी इस पौधे को थार का तारणहार बता कर प्रचारित किया।


परन्तु पासा पलटने लगा नब्बे के दशक में । उस समय देश दुनिया में इन्वेजिव स्पीशीज़ पर नए नए शोध हो रहे थे। इन्वेजिव स्पीशीज़ माने ऐसी प्रजातियां जो किसी क्षेत्र में बाहर से लाई गई हों और बेकाबू हो गई हों। जिसे उंगली पकड़ाई हो, उसने पुणचा, बांह झाल कण्ठ पकड़ लिए हो। पिछले पचास सालों से जूलिफ़्लोरा को माथे चढ़ाए रखने वाले अफसरों, वैज्ञानिकों को अब इसके फैलने की गति पर चिंता होने लगी। गुजरात के बन्नी के घास के मैदानों में जूलिफ़्लोरा अतिक्रमी होने के पूरे सबूत दे रही थी, हर साल पच्चीस वर्ग किलोमीटर जमीन दाब कर।


मारवाड़ियों ने भी आस पास झांका तो पाया कि खैर, खेजड़ी, कैर, कूमठे, फोग, बोरड़ी, जाल सब सिमट रहे हैं, फैल रहा है तो कोरा अँगरेज़ी बांवळ। लोगों ने चिढ़ कर इस 'राजसी रूंख' को 'बावळयो रूंखड़ो' नाम दे दिया। बांवळ अब बावळया हो गया। गुजराती भी बेकाबू जूलिफ़्लोरा को गांडो बांवळ कहने लगे। पर कागले की दुराशीष से कौनसे ऊंट मरते हैं!


खेजड़ी की जड़ें पानी की तलाश में जमीन में पचास साठ फीट तक गहरी जाया करती हैं । बावळया जाता है डेढ़ सौ फीट! यानि बावळया सच में मारवाड़ में बड़ी गहरी जड़ें जमा चुका है। 

झाड़ झंखाड़ सा बन, तीखी शूलों से ख़ुद तक पहुंच दुर्गम बना कर यह अपना बचाव करता है। फिर धूप-घाम, पानी-पत्थर सह कर, छोटे पेड़ों की रोशनी छीन कर और गहरे पानी ढूंढ कर यह जीवित रहने के सब कम्पीटिशन जीत लेता है।


मारवाड़, जहां पानी पहले से इतना ऊंडा है, वहां भूजल स्तर गिराने वाले ऐसे लाखों लाख पेड़ होना सरकार के माथे में सलवटें डालने लगा है। साथ ही बावळये की शूलों से देशज किस्में बचाने के लिए यह ज़रूरी भी हो गया है कि बावळये का कोई इलाज़ ढूंढा जाए।


आज से एक सौ आठ साल पहले बाबू चतुरभुज गहलोत बावळये को मारवाड़ ले कर आए थे। अब अशोक गहलोत की सरकार इसे देश निकाला देने के कागज़ बना रही है।


पर बावळया इतनी आसानी से जाएगा नहीं। हम से पहले दिल्ली, गुजरात, तमिलनाडु, केन्या, इथियोपिया, ऑस्ट्रेलिया की सरकारें बावळये की जड़ें उखाड़ने की कोशिशें कर चुकी हैं।


मेरी चाहना तो यह है कि हम बावळये को खतम ना करें, बुरे दिनों में हमारा संगी रहा है। हम उसके बावलेपन को खतम करें। यानि इसका बेतरतीबी से बढ़ना रुक जाए, ऐसा कोई उपाय हो। साथ ही हम अपनी देशज किस्मों को रोपें, उनका रखाव रखें। तब ही हमारा थार बहाल होगा। तब ही हमारी अरावली बहाल होगी। 


✍️ लक्ष्मण बिश्नोई 'लक्ष्य'


(Photo- Phytoimages)

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