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बागी होती बंदूकें

कैसे गाऊँ जैजैवन्ती,दरबारी और मल्हार को। कैसे गाऊँ बसंत बहारें, कैसे गाऊँ श्रृंगार को। यहां गांवों में रोते दिखते झुग्गी छप्पर झोंपड़ियाँ। सूखे कांटे जैसे चेहरे, भूख से ऐंठी अंतड़ियाँ।। पेड़ पर लटकी लाशें दिखती भूमिपुत्र किसानों की। एक तिहाई जनता भूखी, मोहताज दानें दानों की। दूर देशों में छुपाई जाती कालेधन की संदूकें। इन्हीं कारणों से वतन में बागी होती बंदूकें। ऐसे हालातों में शब्दों में प्रीत नहीं ला सकता मैं। शोकसभा में श्रृंगार के गीत नहीं गा सकता मैं।। मैंने भारत माता के दिल के छाले देखें हैं। बुद्धिजीवियों की जुबान पर लटके ताले देखें है। मैंने सिंहासन दरबारों को निष्ठुर होते देखा है। वीर शहीदों की रूहों को छुप छुप रोते देखा है। जहर बोती सियासत की कैसे मैं जय कार करूं। हत्यारों को सिंहासन पर कैसे मैं स्वीकार करूं। मैं युवाओं को इंकलाब की राग सिखाता जाऊँगा। धवल खादी के दामन के दाग दिखाता जाऊँगा। देशद्रोहियों के वंदन की रीत नहीं ला सकता मैं। शोकसभा में श्रृंगार के गीत नहीं गा सकता मैं। >> लक्ष्मण बिश्नोई "लक्ष्य"