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नीलीसन्धान

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ज़्यादा दिन नहीं बीते जब कि रंगतें चढ़ाने के सारे साधन कुदरती हुआ करते थे। फूल-पत्तियाँ, छाल और जड़ें तथा कुछेक खनिज। ज्यों आल की लकड़ी और मजीठे की जड़ों से लाल रंग निकाला जाता था। कसूमे के फूल से मिलता था जेठा, प्याजी और नारंजी। आम्बाहल्दी पीला रंग देती थी, खैर देता था कत्थई और बिदामी। इसी तरह नील के पौधे से निकलते थे आसमानी, फिरोज़ी और सुरमई रंग।  पर नील एक मायने में इन सब से न्यारी थी। फरक ये था कि आम्बाहल्दी की तरह पानी में घोलने से कपड़े पर इसका रंग नहीं चढ़ता था; न ही यह आल-मजीठे, कत्थे और पतंगे की तरह फिटकड़ी की लाग से रंग देती थी। नील का रंग चढ़ाने का ढब निराला था। एकदम अलहदा। इतना अलग कि एक समय में नीला रँगने वालों की जात तक जुदी हो गई थी। बाकी सारे रंग चढ़ाने वाले रँगरेज, नीला रँगने वाले नीलगर।  आज की कहानी नील के इसी काम की कहानी है। यह काम जुगत का जरूर था, किन्तु था बड़ा अरोचक। इसका नुस्खा कुछ यूँ था कि पहले नील के पौधे से नील-बट्टी बनाई जाती थी। इसके लिए अधपके पौधों को पानी में सड़ा-गला कर, खूंद-मसल कर नील का घोल तैयार किया जाता था। इस घोल को कड़ाहों में औटा कर गाढ़ा कर लेते थे।...

मिट्टी का तेल

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 मिट्टी का तेल भारत के बाज़ारों में करीब डेढ़ सौ साल पहले आया था। पहले- पहल तो इसकी कोई खास पूछ-परख हुई नहीं। स्वभाव से ही संशयी समाज में इतनी आसानी से सम्मान कहाँ। तिस पर यह तो तीखी बास वाला तेल था, सो ऊँची जात वालों ने इसे चौखट ही नहीं चढ़ने दिया। तामसिक होने का तमगा दिया सो अलग। केरोसीन को घरों में दाखिला मिला कंदीलों के आने के बाद। तब तक रौशनी के लिए घी के या सरसों के तेल के दीये जला करते थे।केरोसीन की कंदीलें आई, तो कुछ वक्त ड्योढ़ी के बाहर ही जलाई गई। पर ऐसा ज़्यादा दिनों तक रहा नहीं। सस्ती, सहूलियत वाली और सुंदर होने के कारण कंदीलें जल्द ही देहरी लांघ घर के भीतर भी दीयों की जगह बैठ गई। इस तरह मुल्क के मुफ़्लिस और मालदार सब मिट्टी के तेल से परिचित हुए। कुछ बरसों में तो रोज-हमेश ही के दीये नहीं, दीवाली पर भी काँच के गोले वाली केरोसीन की कंदीलें जलने लगी थी।   कोरी बत्ती वाली इन कंदीलों के बाद प्रेशर वाला पेट्रोमैक्स बाजार में आया। जो फुफकार कर जलता था। काँच की पट्टियों के पीछे चाँद सरीखी दूधिया रोशनी। पेट्रोमैक्स की सी इज्जत भारत में शायद ही किसी और लाइट को मिली हो। पंच-पं...

गोडाण

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गोडाण! नाम सुनकर आप कहेंगे यह किस चिड़िया का नाम है। यह उस चिड़िया का नाम है, जिसके नाम-ओ- निशां मिट जाने को हैं। सदियों से सताई जा रही चिड़िया। कुदरती शर्मिली, लेकिन कण्ठ खोलती, तो पूरा गांव सुनता। कभी भारत भर में गूंजने वाला इस गगनभेर का स्वर अब केवल जैसलमेर के धोरों में गाहे-बगाहे सुनाई देता है। बणजारों के जात की गोडाण घर नहीं बनाती। जहां तीणे सर से ऊँचे, वहीं उसका डेरा। कभी जमीं पर कुछ तुस-तिनकों से तिखूंटा आलना बना लिया तो बना लिया, नहीं तो सीधे घास में घुराळी कर अण्डा दे देती है। आळी काचरी जैसा अण्डा। जैतूनी रंग, जिस पर बादलों की छांव कोरी हुई।  कोरे बादलों की छांव में धरा अण्डा। कभी पशुओं के पैर पड़ जाते हैं, तो कभी आदमी की आंखों में आ जाता है।  खानदेश के भील जब गोडाण अहेरते थे, तो पहले अण्डा खोजते थे। फिर इसके चारों ओर घास फूस का घेरा बना कर घेरे में आग लगा देते थे। बगल में ही कहीं कीड़े चुगती गोडाण लपटें देखती तो हूकती हुई दौड़ी आती। अपनी मोटी-मोटी पांखें फड़फड़ा आग बुझाने का जतन करती और इस जद्दोजहद में पांखें जला बैठती। फिर पांख बिना पाखी क्या करे, मारा ही जाए।  गोडाण क...

फौजी जो था जुनूनी खोजी

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 इस महीने अहा ज़िन्दगी में..... उन दिनों काशीनरेश चेतसिंह का दीवान बाबू जगतसिंह अपने नाम पर जगतगंज का बाज़ार बनवा रहा था। बनारस से दो-ढाई कोस बाहर सारनाथ नाम के स्थान पर एक टीले के पास उजाड़ों का एक घेरा था। उस जगह उसने कुछ खम्भे गिराकर कमठे के लिए ईंट भाटे उठवाए। इस दौरान वहां उसके कामगरों को हरे मार्बल की एक मंजूषा मिली। इस पिटारी में एक ओर डिबिया थी , जिसमें कुछ अस्थियां और कुछ मोती पड़े थे। दीवान ने अस्थियां ससम्मान गंगाजी में बहा दी और डिब्बी वहां के एक अंग्रेज अधिकारी डंकन को सौंप दी। धर्मभीरु मजूरों ने भी दूजी चीजों को हाथ लगाया नहीं। इस बात पर शहर में चर्चे हुए तो काशी के वासियों का ध्यान इस स्थान की ओर गया। यहां कुछ खम्भे, एक स्तूप और एक चौखण्डी इमारत थी। हिन्दुओं ने तो इस जगह को लेकर कोई खास कुतूहल नहीं दिखाया, लेकिन बनारस के जैनी अंग्रेज़ अफसरों के पास पहुंच गए।  सारनाथ ग्यारहवें जैन तीर्थंकर श्रेयंसनाथ की जन्मभूमि है। सो, तब वहां के दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में खेंचतान शुरू हो गई थी। दोनों दावा करते थे कि यहां का बड़ा स्तूप उनका खड़ा किया हुआ है। वे चाहते थे कि कोई अँगरे...

हर बार नई जमीन तलाशती लम्पी भारत में टिक न पाए

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 दैनिक भास्कर के यंग इंडिया कॉलम में- ----------------------------------------------------- हर बार नई जमीन तलाशती लम्पी भारत में टिक न पाए बात साल 1929 की है। आज का ज़ाम्बिया तब उत्तरी रोडेशिया कहा जाता था। गर्मियों के दिनों में यहां मवेशियों में एक नई बीमारी आई। इस में मरीज़ मवेशियों के पूरे शरीर पर उभरी हुई छोटी छोटी घुण्डियाँ दिखने लगती थी। जो हफ़्ते - दस दिन तक बनी रहती थी। पहले पहल डॉक्टरों को लगा कि यह कीड़ों-मकोड़ों के काटने से चमड़ी में आई सूजन है। वहाँ राज कर रहे अंग्रेज़ तब चमड़ी के रोगों के लिए 'डुबकी' को रामबाण माना करते थे। डुबकी यानि संखिये ज़हर (आर्सेनिक) घुले पानी में गायों को गोता लगवाना। इस के लिए गहरे नाले खुदवा कर आर्सेनिक के घोल से भरे जाते। फिर पशुओं को इनमें डुबकी लगवाई जाती। जिससे शरीर पर चिपके कीड़े-मकोड़े, जूं, चीचड़ आदि हट जाते थे। गाँठों वाली गायों को डुबकी लगवाने पर रोग मिटा नहीं, उलटे ज़्यादा संखिये से चमड़ी और उधड़ गई। अंग्रेज़ बड़े हैरान हुए। लेकिन एक तो थोड़े दिनों में बीमारी शांत रह गई थी, दूसरे, वहाँ खुरपके का ज़ोर ज़्यादा था, इस बीमारी के मामले छिटपुट थे, इसलिए ...

सुंदर सलौना मृगछौना

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 (यह लेख इस महीने दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका अहा ज़िंदगी में प्रकाशित हुआ है।) सोना की माँ उसे जन्म देते ही श्वानों की शिकार बन गई थी। आहत हिरणी का क्रंदन सुन गांव के कुछ लड़के बचाने दौड़े भी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। कुत्तों ने अपना काम कर दिया था।  पर सोना के लिए वे सही समय पर थे।  उस दिन फौत हुई हिरणी के पास ही उन्हें सोना मिली। सद्य: जात, खींप में छिपी हुई, डरी - सहमी। चिंकारों के शावकों में कोई गंध नहीं होती। उनके गात भी रेत रंग के होते हैं। इससे उनको खोज पाना श्वानों के लिए मुश्किल होता है। तिस पर डरे हुए मृग छौनों की तो सांसें तक नहीं सुनती। वे अपनी धड़कनें धीमी कर लेते हैं, कान नीचे लटका लेते हैं और ज़मीन से चिपक कर बैठ जाते हैं। सोना अपने इन्हीं सहज गुणों से छिपी रह गई थी। अव्वल तो एक बला टली थी, और वह भी एकबारगी टली थी। यह जीव यहां रहा तो आज नहीं तो कल मारा जाएगा। श्वानों- शिकारियों की नहीं तो भूख माता की भेंट चढ़ेगा। ये सोच लड़के छौने को वहां से उठा लाए।  आगे छौने की सार संभाल कौन करेगा, यह सोच विचार का कोई विषय नहीं। मारवाड़ में दूजी जातियों के लोग घा...

अनबोलों की बीमारी

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 अनबोलों की बीमारी बात तब से शुरू होती है, जब आधे अफ्रीका पर अंग्रेज़ी राज था। केपटाउन से काहिरा तक। आज के ज़ाम्बिया-ज़िम्बाब्वे देश तब उत्तरी - दक्षिणी रोडेशिया कहे जाते थे। एक हीरों की खानों का ठेकेदार हुआ था सेसिल रोड्स नाम का। ठेकेदारी में मोटा माल कमा कर वह अफ्रीका की सियासत में भी बड़ा नाम रहा। जहाँ उसकी कम्पनी ने राज किया, वही जगह अंग्रेजों के लिए रोडेशिया हुई। यहीं, उत्तरी रोडेशिया में साल 1929 की गर्मियों में मवेशियों में एक नई बीमारी आई। पीढ़ियों से पशु पालने वाले लोगों ने भी ऐसा कोई रोग पहले देखा सुना नहीं था। इस के मरीज़ मवेशियों के पूरे शरीर पर उभरी हुई छोटी छोटी घुण्डियाँ दिखने लगती थी। जो हफ़्ते - दस दिन तक बनी रहती थी। चमड़ी में इन उभारों को देख वहाँ के मवेशियों के डॉक्टरों को लगा कि हो न हो, कीड़ों-मकोड़ों के काटने से सूजन आई है।   चमड़ी के रोगों के लिए अंग्रेज़ तब 'डुबकी' को रामबाण माना करते थे। डुबकी यानि संखिये ज़हर (आर्सेनिक) घुले पानी में गायों को गोता लगवाना। इस के लिए वहां की सरकार गांव खेड़ों में लगभग तीन फीट चौड़े और पांच फीट गहरे नाले बनवाती थीं। इन नालों में आर्से...