स्वतन्त्रता दिवस
दूसरी या तीसरी कक्षा के दो बच्चे और दो ही शिक्षक। बच्चे उघाड़े बदन। छाती तक पानी में डूबे हुए। शिक्षकों के भी घुटनों तक पानी है, हेडमास्टर जी ने पानी में भीगा कुर्ता समेट रखा है। लेकिन सब का माथा ऊपर उठा हुआ है, आंखे तिरंगे की ओर देख रही हैं और हाथ सलामी की मुद्रा में है। मुझे ये चित्र देखकर रोमांच हो आया। लाल किले पर या सरकारी स्टेडियमों में लहराता तिरंगा मुझे रोमांच नहीं देता। खुशी जरूर देता है। और तो और, मुझे तो यहाँ तक लगता है कि तिरंगा हर किसी के हाथ में जमता ही नहीं। कोई भ्रष्ट नेता या अधिकारी जब तिरंगा फहरा रहा होता है, तो मैं सोचता हूँ कि अगर तिरंगे में प्राण होते तो ये अवश्य ही लहराने से मना कर देता। वहीं, किसी जवान के हाथ में, किसी बच्चे के हाथ में, किसी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में या किसी झुग्गी झोंपड़ी में लहराता तिरंगा देख मैं पुलकित हो उठता हूँ। मुझे लगता है कि अब तिरंगा भी खुश है। इतनी पहचान तो तिरंगा भी मन ही मन अवश्य करता होगा। बकौल जगदीश सोलंकी- "जुबां से कुछ न बोले, पर तिरंगा जानता सब है।" आज अफसोस ये कि तिरंगे की हुमक बनाए रखने वालों से किसी को मतलब नहीं। बच...