मिट्टी का तेल
मिट्टी का तेल भारत के बाज़ारों में करीब डेढ़ सौ साल पहले आया था। पहले- पहल तो इसकी कोई खास पूछ-परख हुई नहीं। स्वभाव से ही संशयी समाज में इतनी आसानी से सम्मान कहाँ। तिस पर यह तो तीखी बास वाला तेल था, सो ऊँची जात वालों ने इसे चौखट ही नहीं चढ़ने दिया। तामसिक होने का तमगा दिया सो अलग। केरोसीन को घरों में दाखिला मिला कंदीलों के आने के बाद। तब तक रौशनी के लिए घी के या सरसों के तेल के दीये जला करते थे।केरोसीन की कंदीलें आई, तो कुछ वक्त ड्योढ़ी के बाहर ही जलाई गई। पर ऐसा ज़्यादा दिनों तक रहा नहीं। सस्ती, सहूलियत वाली और सुंदर होने के कारण कंदीलें जल्द ही देहरी लांघ घर के भीतर भी दीयों की जगह बैठ गई। इस तरह मुल्क के मुफ़्लिस और मालदार सब मिट्टी के तेल से परिचित हुए। कुछ बरसों में तो रोज-हमेश ही के दीये नहीं, दीवाली पर भी काँच के गोले वाली केरोसीन की कंदीलें जलने लगी थी।
कोरी बत्ती वाली इन कंदीलों के बाद प्रेशर वाला पेट्रोमैक्स बाजार में आया। जो फुफकार कर जलता था। काँच की पट्टियों के पीछे चाँद सरीखी दूधिया रोशनी। पेट्रोमैक्स की सी इज्जत भारत में शायद ही किसी और लाइट को मिली हो। पंच-पंचायती की लाईट होने के कारण रेणु जी ने इसे पंचलाईट कहे जाने की बात बताई है।
इसी का गैस-लाईट नाम घिस-घिस कर गोल हुआ तो घासलेट बन गया, जो देश के पश्चिमी हिस्सों में केरोसीन के लिए काम लिया गया। यानि केरोसीन ज्यों-ज्यों लोगों के बीच नाम बना रहा था, त्यों-त्यों नए नाम भी पा रहा था। इसके विविध नामों की अपनी अलग कहानी है। मराठी में केरोसीन को रॉकेल कहा गया, जो रॉक-ऑयल नाम के छीजने से बना है। मगही-मैथिली में केरोसीन किरासन हुआ तो मारवाड़ी में किरासनी। तमिल में तो केरोसीन ऑइल क्रेसीन-क्रिसिन होते होते कृष्णा ऑइल ही बन गया। मिट्टी का तेल नाम पहले सब प्रकार के पेट्रोल पदार्थों के लिए प्रयुक्त होता था। पेट्रोल, बिटुमन, नेफ्था- सब मिट्टी के तेल थे। पर केरोसीन कम्पनियों द्वारा प्रचार में काम लिए जाने के कारण धीरे धीरे यह केरोसीन के अर्थ में रूढ़ हो गया।
बर्मा शेल कम्पनी, जो इमरजेंसी के समय भारत पेट्रोलियम हो गई, केरोसीन की सबसे बड़ी सप्लायर हुआ करती थी। उसने भांत-भांत की क़्वालिटी, कलर और कीमत वाले केरोसीन से बाज़ार पाट रखा था। इस कम्पनी के चार प्रोडक्ट बड़े पॉपुलर हुए- ग़रीबों के लिए लाल रंग का विक्टोरिया केरोसीन, मिडल क्लास के लिए सफेदी लिए राइजिंग सन और चक्कर तथा मालदारों के लिए एकदम उजले रंग का व्हाइट लिली।
यों बाज़ार में एस्सो और स्टैंडर्ड जैसी और भी कम्पनियां केरोसीन बेचती थी, पर बर्मा शेल की बात अलग थी। एक तो इसे सरकारी शह थी, दूजे यह अपनी मशहूरी निराले ढंग से करती थी। प्रचार के लिए पर्चे बंटवाए जाते थे, देवी-देवताओं के चित्र वाले कैलेंडर छपवाए जाते थे। साथ ही, बड़े कलाकारों से गाने गवा कर और गांव-गांव में फ़िल्में दिखा कर भी यह कम्पनी लोगों की ज़ुबान पर चढ़ी।
मोहम्मद रफ़ी का गाया ऐसा ही एक गाना अभी बीते साल दुबारा ज़ाहिर हो कर चर्चित हुआ था। इसमें बोल थे-
चौके भीतर बैठ चौधरिन तपे रसोई मनमानी,
नायन बैठी बरतन माँजे, कथा सुनावे मिसरानी,
ऐसे में इक लम्प जला कर लावे नानी ठकुरानी,
गरमावे चूल्हे की गरमी, जगमग जगमग दीप जले।
गाँव-गाँव और नगर-नगर में बर्मा शेल का तेल जले।
इसी गाने के साथ गीता दत्त से "चाचा मेरे सोना ना" रिकॉर्ड करवाया गया था। मनमोहन कृष्ण ने "सौ साल की कहानी" और जगमोहन-सविता बनर्जी ने भी "शुभ दिन आया" जैसे गीत बर्मा शेल के लिए गाए थे।
बर्मा शेल की एक और बात, जो लोगों को बड़ी दाय थी, यह थी कि इसके केरोसीन के कनस्तर बड़े मज़बूत हुआ करते थे। ये टिन के बने पीपे हुआ करते थे, जिन पर तरह तरह के छापे लगे होते थे। वही- विक्टोरिया, सूरज और चक्कर। इन पीपों को रैयत पचास जगह काम लेती थी। पानी ढोने और आटा-दाल रखने से ले कर छप्पर छाने और लैम्प बनाने तक। बिमल रॉय ने इन पीपों पर एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी- 'टिन्स फ़ॉर इंडिया' नाम से। फ़िल्म के पहले दृश्य में पीपे लादी एक बैल गाड़ी जा रही है। पर्दे के पीछे की आवाज़ कहती है- 'ये तीन चीजें भारत भर में सबसे आसानी से दीखती हैं- ताड़ का पेड़, बैल गाड़ी और केरोसीन के पीपे।' आज भी हम अपने आस पास जो पीपे देखते हैं, एक कड़ी वाले, वे उन्हीं पीपों की नकल हैं।
ख़ैर, जब पीपे ही पचास जगह काम लिए जा सकते हैं, तो तेल सिर्फ़ लैम्प-लालटेन जलाने काम लिया जाएगा, यह सोचा ही क्यों जाए। धीरे-धीरे लोग किरासनी की दूसरी खूबियों से परिचित हुए और यह अनेक घरेलू लटकों-चुटकुलों में भी काम ली जाने लगी। बच्चों को जो कभी मुमाखी या ततैया डंक मार देते, तो माँएं उस जगह किरासनी में सेंधा नमक मिला कर मलती। बिच्छू काटने पर जहर उतारने को घासलेट से तर करती। जूँओं और लीखों के लिए भी मिट्टी का तेल ही ज़ाबिता था। इसके लिए नारेल के तेल में मिट्टी का तेल मिला कर बालों में लगाया जाता, फिर तीन दिन सिर पर चीर बाँध कर छोड़ दिया जाता। चौथे दिन माथा धोने पर जूँएं मरी मिलती।
गांधी जी जब सेगांव में रहते थे, तब एक बार वहाँ मलेरिया बहुत फैला। ऐसे में सोते समय जितना डील उघाड़ा रहता, बापू उतने पर किरासनी चुपड़ कर सोने लगे। इसकी बास से मच्छर पास न आते थे। इस नुस्खे की बड़ी चर्चा हुई। पर ये कोई नई खोज नहीं थी। बम्बई प्रान्त के गांव-देहातों में औरतें पहले से ही ऐसा करती आ रही थी। जिस घर में चारपाई ही नहीं, वहां मसहरी क्या मुंह पर बांधे। किरासनी लगाई और सो गए, मच्छरों का पाप कटा। यों ठहरे पानी में मच्छर न पनपे, इसके लिए पानी पर मिट्टी का तेल अब भी हम छिड़कते ही हैं।
मारवाड़ की औरतें मेहंदी का घोल बनाते समय उसमें मिट्टी का तेल मिलाया करती थीं, जिससे मेहंदी कंवली और एक तार रहती। वे मेहंदी मांडने से पहले हथेलियों पर भी केरोसीन मलती, तब तीली से चार पान के और कैरी के बूटे कोरती। वे सूखी मेहंदी कुचर कर उतार लेने के बाद फिर हाथों में दो घड़ी किरासनी लगा कर रखती। मेहंदी मलीरां हो या सोजतिया, मिट्टी का तेल सुर्खी इक्कीस कर देता था।
हांडी- देगची की कलौंस नहीं जा रही हो, किसी खद्दर चद्दर का मैल नहीं उतर रहा हो, या आँगन ही में कोई निशान पड़ गया हो। दस दुःखों की एक दवा- केरोसीन।
फिर केरोसीन के स्टोव भी चल पड़े। हालांकि ये लैंप-लालटेन के मुकाबले अलबत्ता धीरे धीरे रसोड़ों में दाखिल हुए। बत्ती वाले और पम्प-प्रेशर वाले 'इस्टोव'। दहेज-दायजे में दी जाने वाली शै। इनकी ज्योति का रंग ज्यों नीला हकीक। कण्ट्रोल में मिलने वाले सस्ते केरोसीन के कारण बहुत बड़ी आबादी ने इनको बरतना शुरू किया। ज़्यादा दिन नहीं बीते, जब महीने में दो बार उचित मूल्य की दुकानों के आगे नीले तेल के लिए कतारें लगा करती थी। अब भी एक बड़ा तबका रोटी-साग बनाने के लिए इनकी टंकियों में कुप्पियों से तेल भरता है।
इन इस्टोवों की बदौलत इस उजले तेल की कहानी में एक स्याह पहलू भी जुड़ा। दरअसल चालू चूल्हे में तेल भरने या ठोकर लग कर तेल ढुल जाने जैसी किसी भूल-चूक से कई बार ये स्टोव भभक उठते थे। इस भभके से पास बैठा आदमी झुलस जाता था, जल जाता था, कई बार मर भी जाता था।
न जाने वो पहला पापी कौन रहा होगा, पर दहेज के भूखे किसी भेड़िये ने अपनी दुल्हन को मार कर केरोसीन छिड़क कर जला दिया, और दोष स्टोव के माथे मढ़ दिया। अब पहली बात तो घर के भीतर का भेद कौन जाने, दूजी- आग रहे सहे सुबूत राख कर गई। यह कहानी चल पड़ी। जब एक अपराधी इसे एक्सीडेंट बता कर बच निकला तो बाकियों की हिम्मत बढ़नी ही थी। आग की ये 'दुर्घटनाएं' देश भर में आग की तरह फैली। हर दिन ऐसे बीसियों मामले होने लगे। सब जगहों पर बेशर्म लोग एक जैसी कहानी सुनाते, तोतों की तरह रटी हुई- स्टोव फट गया, बहु रसोई में अकेली थी, नायलॉन की साड़ी पहन रखी थी, आग पकड़ ली, बचा नहीं पाए! स्टोव फट गया, बहु रसोई में अकेली थी .....!
हर साल हज़ारों-हज़ार नवब्याहताएं, अपने ही दायजे के स्टोव के साथ, कण्ट्रोल का नीला केरोसीन उंडेल कर जलाई जाती रही। नीच लोगों को मिनख मार कर मखौल उड़ाते देख सरकार ने कानून बदले। आईपीसी की धारा 304बी- दहेज हत्या पर उम्र कैद, इसी कारण जोड़ी गई थी। इससे ऐसे मामले पूरी तरह रुके तो नहीं, पर संख्या धीरे-धीरे घटने लगी।
यह सब तो ख़ैर, इस्तेमाल करने वालों की नीयत का खोट था। जिसके लिए केरोसीन को कोसना ठीक नहीं। पर, केरोसीन में भी कुछ कुदरती दोष हैं। जैसे केरोसीन की कंदीलें जला कर पढ़ने वालों की आंखों में चुभन सी महसूस होती है। ग़लती से भी यह तेल चमड़ी पर लगा रह जाए, तो तेज़ जलन हो जाती है। साँस के साथ केरोसीन की कालिख जाने से खाँसी और साँस उठने जैसी सेहत से जुड़ी छोटी-बड़ी कई शिकायतें होने लगती हैं। फिर आगे लम्बे समय तक केरोसीन काम लेते रहने वाले लोगों में टीबी और कैंसर जैसी बीमारियों का ख़तरा बढ़ जाता है।
इसलिए, अच्छा हुआ कि जब बिजली बत्ती और एलपीजी गैस आए, तो केरोसीन के लैम्प-लालटेन और इस्टोव पीछे छूटने लगे। देखते ही देखते पीपे, कुप्पियाँ, केन और बत्तियाँ शहरी रसोईयों से पूरी तरह से गायब हो गई हैं। हालांकि शहरों को केरोसीन का बीते जमाने की बात हो जाना अखरता नहीं है। परन्तु दूर देहात विकल्पों के अभाव में अभी भी केरोसीन की ज़रूरत महसूस करता है। इसलिए गाहे-बगाहे केरोसीन की सब्सिडी ख़त्म करने और कीमतें बढ़ जाने के ख़िलाफ़ धरने-प्रदर्शनों की ख़बरें आज भी दिख जाती हैं।
आज बहुत से ऐसे विकल्प खोजे जा चुके हैं, जो केरोसीन की बनिस्बत हमारे लिए भी बेहतर हैं और हमारे आस पास की आबोहवा के लिए भी। हमें चाहिए कि हम इन विकल्पों को सब लोगों की पहुंच में लाएं। ताकि मज़बूरी में किसी को यह मिट्टी का तेल न पीना पड़े।
✍️ लक्ष्मण बिश्नोई लक्ष्य
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