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साइबेरिया का सफ़ेद सारस

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 जहांगीर के जमाने में एक नामी चितेरा हुआ था- उस्ताद मंसूर नक़्क़ाश। मुग़लिया मुसव्विरों में उसकी जोड़ का कोई आदमी न था। नादिर-उल-अस्र। (अपने) समय में सर्वश्रेष्ठ। जीव-जिनावर जस के तस कागज़ पर कोर देता था। उतने ही सुंदर बेल बूटे भी। उसने कश्मीर के लाला फूलों के चित्र बनाए और कोरा हब्शियों के देश का धारीदार ज़ेबरा, और अमेरिकी मुर्ग़, और डोडो कबूतर। और उसने उकेरा एक अकेला सारस। पर यह सारस सलेटी रंग का, लाल छपके वाला सदा का सा सारस न था। यह रंग से धौला झक्क था। जिसकी आंखों की कोरें ज़र्द और पाँखों की कोरें कुहली।  यह अनोखा सारस उसे मिला कहाँ होगा? क्या यह बादशाह का पालतू था, लैला मजनूं कहे जाने वाले सारस के उस जोड़े के जैसे ? या मंसूर को यह दिखा होगा किसी पोखर में? या कि आगरे के चिड़ीमार टोले वालों में से कोई इसे उठा लाया था तस्वीरखाने तक, ताकि मंसूर उसे कागद में कैद कर सके ? इन बातों की तफ़्सील हमें नहीं मिलती। तस्वीर पर जहाँगीरी मुहर लगी है और हाशिए पर केवल इतना लिखा है- अमल-ए- उस्ताद मंसूर। इसके सिवा आगा-पीछा कुछ नहीं।  मंसूर से कोई डेढ़ सौ बरस बाद पश्चिम के खग-विज्ञानियों को पहली बार...