अंडर द डोम

 एक चीनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म है- अंडर द डोम।

खोजी पत्रकार चाए जिंग ने 2015 में अपने शहर की हवाओं में घुले जहर पर इसे बनाया था।
दरअसल,चाए की अजन्मी बच्ची को विषाक्त वायु ने ट्यूमर दे दिया था और जन्म लेते ही उसका ऑपरेशन किया जाना पड़ा था। इसी से आकुल हो चाए ने यह फिल्म बनाई।
यह फिल्म सोशल मीडिया पर केवल 3 दिनों में 30 करोड़ लोगों द्वारा देखी गई। चौथे दिन चीन की सरकार ने अपनी पर्यावरण नीतियों पर उठते सवालों से डर कर चीन में इसे प्रतिबंधित कर दिया।
मुझे आज यूट्यूब पर कहीं भटकते हुए यह फिल्म टूटे फूटे इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ मिली। और मुझे लगा कि आज दिल्ली के भी वही हाल हैं, जो "अंडर द डोम" फिल्म बीजिंग, शांगक्जी या अन्य चीनी शहरों के बारे में बताती है।
कुछेक साल पहले "अंडर द डोम" नाम से एक साइंस फिक्शन टी वी सीरीज आई थी, जिसमें एक शहर के आकाश को पारदर्शी डोम घेर लेता है, जिससे लोगों का वहाँ से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। चाए की डॉक्यूमेंट्री का नाम इस सीरीज से लिया गया है। चाए कहती है कि आज हमारे लगभग सभी शहर वैसे ही डोम के अंदर घुट रहे हैं, जहरीली हवाओं ने हमें घेर रखा है।
डॉक्यूमेंट्री में प्रदूषण दूर करने में सरकारों की नाकामी, अनिच्छा और लापरवाही जाहिर करने के बाद चाए कहती है कि मुझे मरने से डर नहीं लगता, लेकिन मैं इस तरह जीना नहीं चाहती। इस हेतु वांछित परिवर्तन के लिए सरकारों पर निर्भर रहने के बजाय चाए स्वयं पहल करने पर जोर देती है।
लंदन में 1952 में "द ग्रेट स्मॉग" 4 दिन तक बना रहा था। हजारों लोग मर गए, श्वास नहीं ले पाए। पिट्सबर्ग के भी ऐसे ही हाल हुआ करते थे। आज इन दोनों की हालत हम से हज़ार गुना अच्छी है। जब ये शहर सुधर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं ?
खुशी की बात ये है कि 3 दिन तक ही विमर्श का केंद्र बन पाई चाए की इस फिल्म का लोगों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस फिल्म को चीन के पर्यावरण मंत्री तक ने चीन की "साइलेंस स्प्रिंग" कह दिया था। ( साइलेंस स्प्रिंग कीटनाशकों के जहर के खिलाफ रशेल कार्सन की किताब थी, जिसने अमेरिका में हड़कम्प मचा दिया था। ) लोगों को पौधे लगाने के लिए प्रेरित करने, वाहनों का प्रयोग कम करने के लिए प्रेरित करने और पर्यावरण के लिए कुछ करने का जज्बा देने के लिए ये फिल्म बहुत सराही गई।
हालांकि दिल्ली के सिवाय शेष भारत में हालात उतने बुरे नहीं है, जितने चीन में है। फिल्म में चाए एक 5-6 साल की बच्ची से पूछती है कि क्या तुमने कभी सफेद बादल देखे हैं ? बच्ची दो टूक कहती है- कभी नहीं! भारत के बच्चे अभी इस हाल तक नहीं पहुंचे हैं। लेकिन समय रहते अगर हम नहीं चेते, तो ये दिन भी ज्यादा दूर नहीं है।
सरकारी स्तर पर प्रयास होंगे, इसके लिए इंतजार न करें, स्वयं ही पहल करें। गांधी जी कह गए हैं- Be the change. पौधे लगाएं, निजी वाहनों का प्रयोग कम और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग ज्यादा करें। आप इतना कर देंगे, यही काफी है।
प्रकृति क्षण रुष्टा क्षण तुष्टा नहीं है। नाराज इतनी जल्दी नहीं होती, दहाईयों तक छेड़ा है तब ये हाल हुए हैं। कुछ दिन भुगतना तो पड़ेगा ही। लेकिन मनाने की कोशिशें शुरू तो की जाएं, हल भी निकलेगा।

टिप्पणियाँ

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