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सुंदर सलौना मृगछौना

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 (यह लेख इस महीने दैनिक भास्कर की मासिक पत्रिका अहा ज़िंदगी में प्रकाशित हुआ है।) सोना की माँ उसे जन्म देते ही श्वानों की शिकार बन गई थी। आहत हिरणी का क्रंदन सुन गांव के कुछ लड़के बचाने दौड़े भी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। कुत्तों ने अपना काम कर दिया था।  पर सोना के लिए वे सही समय पर थे।  उस दिन फौत हुई हिरणी के पास ही उन्हें सोना मिली। सद्य: जात, खींप में छिपी हुई, डरी - सहमी। चिंकारों के शावकों में कोई गंध नहीं होती। उनके गात भी रेत रंग के होते हैं। इससे उनको खोज पाना श्वानों के लिए मुश्किल होता है। तिस पर डरे हुए मृग छौनों की तो सांसें तक नहीं सुनती। वे अपनी धड़कनें धीमी कर लेते हैं, कान नीचे लटका लेते हैं और ज़मीन से चिपक कर बैठ जाते हैं। सोना अपने इन्हीं सहज गुणों से छिपी रह गई थी। अव्वल तो एक बला टली थी, और वह भी एकबारगी टली थी। यह जीव यहां रहा तो आज नहीं तो कल मारा जाएगा। श्वानों- शिकारियों की नहीं तो भूख माता की भेंट चढ़ेगा। ये सोच लड़के छौने को वहां से उठा लाए।  आगे छौने की सार संभाल कौन करेगा, यह सोच विचार का कोई विषय नहीं। मारवाड़ में दूजी जातियों के लोग घायल- अनाथ हिरणों को