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डस्ट स्टॉर्म

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ख्यातनाम अमेरिकी फोटोग्राफर स्टीव मैक्करी का खींचा एक चित्र है - डस्ट स्टॉर्म। जगह जैसलमेर की है, साल 1983 का। बैकग्राउंड में गहरी आँधी है, आँधी से आगे पाँच-सात औरतें खड़ी हैं। लाल रंगी ओढ़नी ओढ़े, हाथों-पैरों में टड्डे-कड़ले पहने, साथ-साथ खड़ी औरतें। लेकिन आज की बात इन औरतों की नहीं है। बात चित्र में जमीन पर पड़े रीते घड़े और खाली मटकी की भी नहीं है।  बात है बैकग्राउंड में चल रही गहरी आँधी की। यही जैसलमेर, यही 1983, यही आँधी। इस आँधी की ओट में एक और डस्ट स्टॉर्म धीरे धीरे ऊँचा उठने लगा था। लेकिन इस का निशाना जैसलमेर नहीं था। ये स्टॉर्म चला था स्टीव मैक्करी के देश, अमेरिका की ओर। डस्ट थी हेल डस्ट : हेरोइन।  अमेरिका में उन दिनों दसियों लाख लोग हेरोइन का नशा किया करते थे। पड़ोसी देश मैक्सिको से माल मिलता था - मैक्सिकन मड। किन्तु साल 1978 में मेहिको की सरकार ने अफ़ीम के ओरेंजी खेतों पर हेलीकॉप्टर से ज़हर छिड़क दिया। खड़ी खेती उजाड़ हो गई। मेहिको में हेरोइन बन पाना सम्भव न रहा। ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान नए ठेकेदार बन कर सामने आए। तस्करी शुरू हुई वाया भारत। बम्बई-दिल्ली से जहाजों, हवाई जहाजों से

कहानी बावळये की

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 कहानी बावळये की  साल 1913 की बात है। 'भूल्ये चूक्ये' जोधपुर आने वाला काळ इस बार तीन सालों से डेरा डाल कर बैठा था। खाल सेंक देने वाली लू सांय सांय कर रही थी। पुरबाई बादलों की जगह सिंध से आने वाले टिड्डी दल के घेरे थे। रेलें रोक दी गईं, क्यूं के बड़ी तादाद में टिड्डी फाकों के पिसने से पटरी और पहिये आपस में चिपक गए थे। मारवाड़ की गद्दी पर उस समय 15 साल के किशोर महाराजा सुमेर सिंह बिराजे थे। दरबार ने अकाल को देखते हुए चराई माफ़ कर दी। लेकिन चरने को कुछ बचा हो तब कोई बात!  महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने ईस्वी 1888 में जोधपुर राज्य में फॉरेस्ट महकमा शुरू किया था। लाला दौलत राम इसके पहले मुखिया हुए। हम जिस समय की बात कर रहे हैं, उस समय, यानि 1913 में, बाबू चतुरभुज गहलोत इस पद पर आसीन थे। पांच सात साल तक सोजत में रेंजर और साल भर गुज़ारे के इंस्पेक्टर रहने के बाद बाबू चतुरभुज सुपरिंटेंडेंट की पोस्ट तक पहुँचे थे। हालांकि उनसे पहले पण्डित रिखेश्वर प्रसाद सीनियोरिटी के नाते मुखिया होने की आस लगाए बैठे थे। लेकिन कामेड़े होने के ट्रैक रिकार्ड के चलते मौका मिला चतुरभुज जी को।  फॉरेस्ट महकमे के काम

उबासुते

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 उबासुते ------------------------ एक जापानी दन्तकथा है - उबासुते का रिवाज़। बात उस जमाने की, जब हर दूजे-तीजे साल काळ पड़ा करता था। खेतों में परिवार का पेट भरने जितना धान भी न होता। गिनती के दाने होते, उसमें भी लाग-बाग का जोर अलग। ऐसे में समाज में उबासुते का रिवाज़ शुरू हुआ। जापानी भाषा में उबासुते का अर्थ- बुढ़िया से छुटकारा।  बीमार होते ही या उमर का आंकड़ा सत्तर पार होते ही बेटे अपने माँ बाप को एक रात कंधे पर बाँध कर निकलते और दूर किसी पर्वत-पहाड़ पर पटक आते। बूढ़ी काया वहाँ या तो ठण्ड से ठर जाती, या कोई जंगली जिनावर तोड़ लेता, या गिद्ध ही नोंच खाते।  जापान में यह किवदंती बहुत प्रचलित है। वहां जंगलों को उबासुते से जोड़ा गया। बड़े पहाड़ों को उबासुते यामा की संज्ञा दी गई। इसके घेरे कविताएं लिखी गई, उपन्यास रचे गए, चित्र कोरे गए, फिल्में भी बनाई गई। लेकिन जापान में ऐसी कोई परम्परा रही हो, इतिहास के पोथी-पन्नों में इसके प्रमाण नहीं मिलते। अलबत्ता जापान तो अपने बुजुर्गों की देख रेख करने के लिए ही जाना जाता है। तब कौतुक की ही बात कि यह कहानी उसकी कल्पनाओं में क्यों कर आ गई।  जवाब यह है कि यह कहानी हमा