नीलीसन्धान
ज़्यादा दिन नहीं बीते जब कि रंगतें चढ़ाने के सारे साधन कुदरती हुआ करते थे। फूल-पत्तियाँ, छाल और जड़ें तथा कुछेक खनिज। ज्यों आल की लकड़ी और मजीठे की जड़ों से लाल रंग निकाला जाता था। कसूमे के फूल से मिलता था जेठा, प्याजी और नारंजी। आम्बाहल्दी पीला रंग देती थी, खैर देता था कत्थई और बिदामी। इसी तरह नील के पौधे से निकलते थे आसमानी, फिरोज़ी और सुरमई रंग।
पर नील एक मायने में इन सब से न्यारी थी। फरक ये था कि आम्बाहल्दी की तरह पानी में घोलने से कपड़े पर इसका रंग नहीं चढ़ता था; न ही यह आल-मजीठे, कत्थे और पतंगे की तरह फिटकड़ी की लाग से रंग देती थी। नील का रंग चढ़ाने का ढब निराला था। एकदम अलहदा। इतना अलग कि एक समय में नीला रँगने वालों की जात तक जुदी हो गई थी। बाकी सारे रंग चढ़ाने वाले रँगरेज, नीला रँगने वाले नीलगर।
आज की कहानी नील के इसी काम की कहानी है। यह काम जुगत का जरूर था, किन्तु था बड़ा अरोचक। इसका नुस्खा कुछ यूँ था कि पहले नील के पौधे से नील-बट्टी बनाई जाती थी। इसके लिए अधपके पौधों को पानी में सड़ा-गला कर, खूंद-मसल कर नील का घोल तैयार किया जाता था। इस घोल को कड़ाहों में औटा कर गाढ़ा कर लेते थे। फिर उसे चादरों पर सुखा कर बट्टी, गोली या ढेले-ढगले बना लिए जाते थे। यह काम जहाँ नील की खेती होती थी, वहां हुआ करता था।
वहां से बट्टी गाँवों-कस्बों में नीलगरों तक पहुँचती थी। यहां इससे डाई बनाने के लिए नीलगर इसका खमीर उठाया करते थे। यह माट उठाना कहलाता था। माट मिट्टी का बना एक बड़ा बर्तन होता था, जो जमीं में गाड़ कर रखा जाता था। इसे चार पांच मण तक पानी से भर कर, उसमें थोड़ा चूना डाल कर पहले खदबदाया जाता था, फिर खमीर उठाने के लिए उसमें गुड़, खजूर और चाशनी जैसी चीजें डाल कर सड़ाई जाती थी। बाद में इस घोल में बट्टी घिस कर मिलाने से नील गल जाती थी।
यह हरे-पीले रंग का घोल बनता था, जिस पर मोरगर्दनी रंग के झाग आते थे। इसमें दो-चार बार डुबोकर हवा में सुखाने से कपड़े पर गहरा नीला रंग चढ़ जाता था। इसी में नील की मिक़दार कम ज़्यादा कर के बैंजई, आबी और सुरमई आदि रंग चढ़ाए जाते थे।
पहली बार माट उठाने में दस से बीस दिन लगते थे, परन्तु बाद में उसी घोल को नया किया जा सकता था। इस तरह माट बीसियों साल चलते रहते थे। यों नामी नीलगरों के घर सौ-सौ साल पुराने माट मिलना भी मामूली बात थी।
जब माट में खमीर उठता तो बहुत से ऐतराज़ भी साथ उठते थे। दरअसल माट जब फरमेन्ट हो रहा होता था, तब इसे बार बार हिलाना पड़ता था। नीलारे हर पहर बल्लम से माट बिलो रहे होते थे। इस कुहीजते हुए माट से जो बदबू फूटती थी, उसे कह कर नहीं बताया जा सकता। आदमी तो आदमी, जानवरों तक का जीना दूभर कर देने वाली बास।
दूसरा, माट में जब कपड़े को डोब लगाई जाती, तो रंग तो चढ़ता ही, बास पहले चढ़ती थी। नील माट में रंगे कपड़ों से नील गंदल कभी जाता नहीं था। चाहे जितना धो लो, जितना सुखा लो; हल्की ही सही, गंध हमेशा बनी रहती। बादलवाई के दिनों में, मेह बरसने पर यह बू बढ़ भी जाती थी।
तीसरा, माट में पड़ी गुड़, ख़जूर और चाशनी जैसी चीजें माखों का जमघट अपनी और खींचती थी। आगे यूं होता कि फरमेन्ट होने से बनती गैसों और घोल में मिले चूने के कारण जमघट वहीं रह जाता था। माखे मारे जाते थे। हर माट पर हज़ारों हज़ार। ऐसे ही जीव वहां भी मरते थे, जहां बट्टी बनाई जाती थी।
चौथा, मक्खियों और कीड़ों से बजबजाते माट से बीमारियों के फैलने का डर भी हरदम बना रहता था।
सार यह कि रंग की ओप के सिवा नील के साथ और कोई अच्छी बात न जुड़ी थी। ऐसे में नील की कभी वो पैठ न बनी, जो दूजे रंगों की थी। अब चूंकि 'नीलीसन्धान' सदियों तक इस एक ही विधि से होता आया था। और यह विधि अनेक आधारों पर आपत्तिजनक थी। सो धर्मों-पन्थों में नील का नियमन हुआ।
पहले पहल जीव हिंसा के आधार से जैनों ने नील का निषेध किया। पानी छानने के बाद जीवाणी डालने वाले जैन देखी आंखों मरती मक्खी का पाप कैसे अपने सर ले लेते। नील का व्यापार तक अतिचार की श्रेणी में रख दिया गया।
हिन्दुओं में 'पवित्रता' के पैमाने पर नील का नियमन किया गया। वर्ण व्यवस्था में सहज ही यह शूद्रों का रंग घोषित हुआ। द्विजों के लिए त्याज्य। अंगिरस, आपस्तम्ब, शँख-लिखित, याज्ञवल्क्य और मनु। सभी ने धर्मशास्त्रों में नील के प्रयोग पर दण्ड के विधान और प्रायश्चित के प्रावधान दिए।
यथा: नील से रंगे वस्त्र को पहन लेने पर प्रायश्चित एक दिन का व्रत और पंचगव्य का पान।
कोई ब्राह्मण नील के काम से जीविका चला ले, तो प्रायश्चित चन्द्रायण का व्रत, जिसमें चंद्रमा की कलाओं के अनुसार भोजन के ग्रास। उजली एकम को एक निवाला, दूज को दो, तीज को तीन...।
यह भी कहा गया कि जिस भूमि पर नील उगाई गई है, उसका दोष बारह बरस तक नहीं मिटेगा। इसका कोई प्रायश्चित नहीं। (नील की खेती के बाद जमीं के बंजर हो जाने की बात यहीं से निकली है)।
एक विडम्बना यह थी कि भारत में भले नील बहिष्कृत और दुत्कृत थी, विदेशों में यह सदैव 'भारत का रंग' थी। इंडिकम, इंडिकोन, इंडिगो! योरोप तक से ब्योपारी इसे खोजते चले आते थे। अरब और मग़रिब में भी भारत की नील का मोल ज़्यादा था, वहां भी इसकी मांग बनी ही रहती थी।
चूंकि इस्लाम में नील पर कोई पाबन्दी नहीं थी। सो सल्तनत और मुग़लिया राज के दिनों में गुजरात, अजमेर और आगरा के सूबों में बड़े पैमाने पर नील गल रही थी। मोटे तौर पर यह नील निर्यात के लिए ही बनती थी। इनमें बड़े नाम थे बयाना की गुली और सरखेज की बट्टी के। परन्तु इस्लाम ही के असर से इन सूबों के अंदरूनी इलाकों में भी नील की मांग बढ़ रही थी। यहां रंगाई छपाई का काम कदीमी तौर से छींपे किया करते थे। उन्हें नामदेव जी ने नील के काम में पाप बता कर यह करने से रोक दिया था। पर तब तक यहां नीला रंगने का काम मुसलमानी मज़हब मानने वाले नीलगर करने लग गए थे। फिर उनके काम को सल्तनत की शह मिली तो गांव-गांव नील के माट चढ़ने लगे।
प्रतिक्रिया स्वरूप नील का तिरस्कार करते स्वर फिर से तीव्र हुए। लोक में नील को और अधिक दोष दिए जाने लगे। अब तक पुण्य हरने वाली नील प्राण हरने वाली भी कही जाने लगी। राजपूताने में जुंझार ऐसे योद्धाओं को कहा जाता था, जिनके बारे में यह मान्यता हो कि शीश कट जाने पर भी उनकी धड़ लड़ती रही। नील इन जुंझारों की कथाओं में खलनायक के रूप में शामिल हुई। कहा जाता था कि जुंझारों की धड़ पर कोई नील का छींटा दे दे तो धड़ लड़ना छोड़ कर गिर पड़ती थी।
नील सत को शांत कर देने वाली भी कही गई। चिता चढ़ने को उद्यत किसी स्त्री पर जब नील छिड़क दी जाती थी, या चिता के नारियलों में नील भर दी जाती थी, तो उसका सत शांत हो जाता था। इन आख्यानों से ऊँची जातियों का नील से बैर बढ़ाने का प्रयास किया गया।
'धर्मस्य ग्लानि' के आधार पर इस इलाके में नए पन्थ भी उभर रहे थे। उनमें भी नील का निषेध किया जाने लगा। ऐसे ही दो पंथ बिश्नोईयों और जसनाथियों के थे।
बिश्नोईयों के गुरू जम्भेश्वर ने अपनी सबदवाणी में कहा- कफ विवरजत रुइयो...। रुई का मोल तब तक ही है, जब तक वह कफ से बची हुई है। कफ माने नील के माट का झाग। आगे ऊधोजी ने आखड़ी लिखी तो लिखा- 'लील न लावै अंग'। बिश्नोईयों का उन्नतीसवां नियम। जीव दया पर आधारित पन्थ में इस नियम का शामिल होना तब स्वाभाविक ही था।
जसनाथी सिद्ध सन्त पालोजी मारवाड़ के चाऊ गांव से चले तो आण दे कर चले कि गाँव में नील का माट नहीं चढ़ाया जाएगा।
इसी समय उधर गुजरात के बड़ौदा में कवि सुराभट्ट कलि-महिमा में नील की खेती और उसका बिलोया जाना कलियुग का लक्षण बतला रहे थे। ('गळी वावशे खेप ज करी, पछे वलोवशे कोठा भरी')
चहुंओर के इस सामाजिक विरोध से नील के माट जो एकबारगी उफ़ान चढ़े थे, धीरे धीरे उतरने लगे। टैवरनियर जब आया था तो यहाँ बट्टी बनने के कारखाने देख कर गया था। लेकिन अंग्रेज़ी राज आते आते इन इलाकों में नील की खेती उजड़ चुकी थीं। नीलगर दक्कन तक बिखर गए थे।
रंगाई पर फिर से कसूंमल रंग का राज हुआ। नील हाशिए से भी परे चली गई। उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों तक हाल ये थे कि उत्तरी और पश्चिमी भारत में ऊंची मानी जाने वाली जातियों के लोग नील की लकड़ी को जलावन तक के लिए काम न लेते थे।
अंग्रेज चूंकि नील के ब्योपारी थे, सो उन्होंने नील को बढ़ावा देने के प्रयास किए। बंगाल-बिहार में बागान बनाए, वह कहानी तो सब जानते हैं। किन्तु इस के साथ ही उन्होंने बट्टी बनाने के तौर तरीके और माट उठाने की विधियाँ भी सुधारीं। गुड़ और चाशनी की जगह जस्ते के बुरादे और कसीस आदि से माट उठाई जाने लगीं।
बट्टी की नांद की सड़ाँध और माट पर मंडराते माखे केमिस्ट्री की तरक्की के साथ धीरे धीरे मिट गए। पर नील के लिए भारतीयों की हिचक नहीं मिटी। नील की कुदरती गंध का भी इसमें थोड़ा तो योग था। किन्तु मोटा मोटी बात ये थी कि नील के पौधे, माट और कफ़ाई से जुड़े पूर्वाग्रह दूर होने का नाम न लेते थे।
एक दिन यह सब भी बदल गया। बायर नाम के एक जरमन केमिकर ने 1865 में डामर से नीला रंग बना कर दिखा दिया। यह माट के नीले रंग का पहला तोड़ था। नीलीसन्धान की नई विधि - सिंथेटिक डाई। कुछ बरसों बाद कार्ल ह्यूमेन नाम के दूसरे जरमन ने इसके बड़े पैमाने पर उत्पादन को सम्भव कर दिखाया। सस्ता, सुंदर एवं टिकाऊ रंग। परिणाम ये हुआ कि बीस ही सालों में बाजार का 95 फीसदी नील डामर का बना हुआ था। जाहिर है, माट उठाने की रीत उठ गई। यों, कुछ रंगारे अब भी माट में नील रंगते हैं। परन्तु उनमें भी नील घोली जाती है सज्जी-सोडे आदि से। एकदम साफ सुथरे ढंग से। बाकी रंगों की ही मानिंद।
पुराने ढंग के नील माट के उठने से अच्छा काम यह हुआ कि नीले रंग के दिन फिर आए। क्यों के अब नीले से नफ़रत का कोई कारण बचा न था। नीले रंग की ओप न सुहाती हो, ऐसा तो कभी था नहीं। सभी धर्मों -पन्थों ने नील बरजी थी; वह भी उसके दोषों के कारण; नीला रंग तो किसी ने नहीं बरजा था। नीले रंग से जुड़े दोष दूर हुए, तो सहज ही, धीरे धीरे, रंग से दुराव दूर हो गया।
आज की पीढ़ी माट-मठोर, नांद-कोठियों के नाम भी नहीं जानती। न जानती है कि नीले रंग से एक समय इतना बैर हुआ करता था।
-लक्ष्मण बिश्नोई
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