गोडाण! नाम सुनकर आप कहेंगे यह किस चिड़िया का नाम है। यह उस चिड़िया का नाम है, जिसके नाम-ओ- निशां मिट जाने को हैं। सदियों से सताई जा रही चिड़िया। कुदरती शर्मिली, लेकिन कण्ठ खोलती, तो पूरा गांव सुनता। कभी भारत भर में गूंजने वाला इस गगनभेर का स्वर अब केवल जैसलमेर के धोरों में गाहे-बगाहे सुनाई देता है। बणजारों के जात की गोडाण घर नहीं बनाती। जहां तीणे सर से ऊँचे, वहीं उसका डेरा। कभी जमीं पर कुछ तुस-तिनकों से तिखूंटा आलना बना लिया तो बना लिया, नहीं तो सीधे घास में घुराळी कर अण्डा दे देती है। आळी काचरी जैसा अण्डा। जैतूनी रंग, जिस पर बादलों की छांव कोरी हुई। कोरे बादलों की छांव में धरा अण्डा। कभी पशुओं के पैर पड़ जाते हैं, तो कभी आदमी की आंखों में आ जाता है। खानदेश के भील जब गोडाण अहेरते थे, तो पहले अण्डा खोजते थे। फिर इसके चारों ओर घास फूस का घेरा बना कर घेरे में आग लगा देते थे। बगल में ही कहीं कीड़े चुगती गोडाण लपटें देखती तो हूकती हुई दौड़ी आती। अपनी मोटी-मोटी पांखें फड़फड़ा आग बुझाने का जतन करती और इस जद्दोजहद में पांखें जला बैठती। फिर पांख बिना पाखी क्या करे, मारा ही जाए। गोडाण का सबसे बड़ा बैर
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